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असा॒म्योजो॑ बिभृथा सुदान॒वोऽसा॑मि धूतयः॒ शवः॑ । ऋ॒षि॒द्विषे॑ मरुतः परिम॒न्यव॒ इषुं॒ न सृ॑जत॒ द्विष॑म् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

asāmy ojo bibhṛthā sudānavo sāmi dhūtayaḥ śavaḥ | ṛṣidviṣe marutaḥ parimanyava iṣuṁ na sṛjata dviṣam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

असा॒मि । ओजः॑ । बि॒भृ॒थ॒ । सु॒दा॒न॒वः॒ । असा॑मि । धू॒त॒यः॒ । शवः॑ । ऋ॒षि॒द्विषे॑ । म॒रु॒तः॒ । प॒रि॒म॒न्यवे॑ । इषु॑म् । न । सृ॒ज॒त॒ । द्विष॑म्॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:39» मन्त्र:10 | अष्टक:1» अध्याय:3» वर्ग:19» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:8» मन्त्र:10


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे क्या करें, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (धूतयः) दुष्टों को कंपाने (सुदानवः) उत्तम दान स्वभाववाले (मरुतः) विद्वान् लोगो ! तुम (न) जैसे (परिमन्यवः) सब प्रकार क्रोधयुक्त शूरवीर मनुष्य (द्विषम्) शत्रु के प्रति (इषुम्) बाण आदि शस्त्र समूहों को छोड़ते हैं वैसे (ऋषिद्विषे) वेद वेदों को जाननेवाले और ईश्वर के विरोधी दुष्ट मनुष्यों के लिये (असामि) अखिल (ओजः) विद्या पराक्रम (असामि) संपूर्ण (शवः) बल को (बिभृथ) धारण करो और उस शत्रु के प्रति शस्त्र वा अस्त्रों को (सृजत) छोड़ो ॥१०॥
भावार्थभाषाः - इस मंत्र में उपमालङ्कार है। जैसे धार्मिक शूरवीर मनुष्य क्रोध को उत्पन्न शस्त्रों के प्रहारों से शत्रुओं को जीत निष्कंटक राज्य को प्राप्त होकर प्रजा को सुखी करते हैं वैसे ही सब मनुष्य वेद विद्वान् वा ईश्वर के विरोधियों के प्रति सम्पूर्ण बल पराक्रमों से शस्त्र अस्त्रों को छोड़ उन को जीतकर ईश्वर वेद विद्या और विद्वान् युक्त राज्य को संपादन करें ॥१०॥ इस सूक्त में वायु और विद्वानों के गुण वर्णन करने से पूर्व सूक्तार्थ के साथ इस सूक्त के अर्थ की संगति जाननी चाहिये। यह उनतालीसवां सूक्त और उन्नीसवां वर्ग समाप्त हुआ ॥३९॥१९॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

(असामि) अखिलम् (ओजः) विद्यापराक्रमम् (बिभृथ) धरत तेन पुष्यत वा। अत्रान्येषामपि० इति दीर्घः। (सुदानवः) शोभनं दानुर्दानं येषां तत्संबुद्धौ (असामि) पूर्णम् (धूतयः) ये धून्वन्ति ते (शवः) बलम् (ऋषिद्विषे) वेदवेदविदीश्वरविरोधिने दुष्टाय मनुष्याय (मरुतः) ऋत्विजः (परिमन्यवः) परितः सर्वतो मन्युः क्रोधो येषां वीराणां ते (इषुम्) वाणादिशस्त्रसमूहम् (न) इव (सृजत) प्रक्षिपत (द्विषम्) शत्रुम् ॥१०॥

अन्वय:

पुनस्ते किं कुर्युरित्युपदिश्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - हे धूतयः सुदानवो मरुत ऋत्विजो यूयं परिमन्यवो द्विषं शत्रुं प्रतीषुं शस्त्रसमूहं प्रक्षिपन्ति नर्षिद्विषेऽसाम्योजोऽसामिशवो बिभृथ ब्रह्मद्विषं शत्रुं प्रति शस्त्राणि सृजत प्रक्षिपत ॥१०॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। यथा धार्मिका जातक्रोधाः शूरवीराः शस्त्रप्रहारैः शत्रून् विजित्य निष्कंटकराज्यं प्राप्य प्रजाः सुखयन्ति। तथैव सर्वे मनुष्या वेदविद्याविद्वदीश्वरद्वेष्टॄन् प्रत्यखिलाभ्यां बलपराक्रमाभ्यां शस्त्राऽस्त्राणि प्रक्षिप्यैतान्विजित्य वेदविद्येश्वरप्रकाशयुक्तं राज्यं निष्पादयन्तु ॥१०॥ अत्र वायुविद्वद्गुणवर्णनात्पूर्वसूक्तार्थेन सहास्य संगतिरस्तीति बोध्यम्। इत्येकोनचत्वारिंशं सूक्तमेकोनविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥१०॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जशी धार्मिक शूरवीर माणसे क्रोधाने शस्त्रांचा प्रहार करून शत्रूंना जिंकतात व राज्य निष्कंटक करून प्रजेला सुखी करतात तसेच सर्व माणसांनी वेदविद्वानाच्या व ईश्वराच्या विरोधकांना संपूर्ण बल पराक्रमांनी अस्त्र-शस्त्रांनी जिंकून ईश्वर, वेदविद्या व विद्वानयुक्त राज्य संपादन करावे. ॥ १० ॥